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आयुर्वेद के वैश्विक दूत पीआर कृष्ण कुमार: परंपरा, विज्ञान और आध्यात्मिकता का अद्वितीय संगम

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New Delhi, 22 सितंबर . गुरजिएफ ने मनुष्य को एक बहुलतावादी प्राणी बताता था, इसका अर्थ है कि मनुष्य एक ऐसा प्राणी है, जिसके अंदर सैकड़ो ‘मैं’ होते हैं. उन ‘मैं’ का संतुलन साधकर समाज के हित में उपयोग करना चुनिंदा लोगों के बस की बात होती है. आयुर्वेदाचार्य पीआर कृष्ण कुमार ऐसे ही व्यक्तित्व थे. वह एक बेहतर चिकित्सक, शिक्षक, दार्शनिक, प्रशासक, उद्यमी और आध्यात्मिक मार्गदर्शक के तौर पर अपनी पहचान रखते थे. इस सभी भूमिकाओं का उनके जीवन में अद्भुत संतुलन था.

साल 1951 में 23 सितंबर को जन्मे कृष्ण कुमार, आयुर्वेद के महान प्रवर्तक और द आर्य वैद्य फ़ार्मेसी कोयंबटूर के संस्थापक आर्य वैद्यन पीवी राम वेरियर के पुत्र थे. उनके दादा संस्कृत के विद्वान, कवि और वैद्य थे. पिता राम वेरियर का सपना था कि वह आयुर्वेद को वैश्विक मंच पर ले जाएं और नई पीढ़ी के लिए ऐसे चिकित्सक तैयार करें, जो परंपरा और आधुनिकता दोनों का संगम हों. यही दृष्टि कृष्ण कुमार के जीवन का पथप्रदर्शक बनी.

शोर्णूर आयुर्वेद कॉलेज से शिक्षा प्राप्त करने के बाद कृष्ण कुमार ने आयुर्वेद शिक्षा के प्रचार-प्रसार को अपना जीवन-ध्येय बनाया. कोयंबटूर स्थित चिकित्सालयम में उन्होंने आयुर्वेद को ज्योतिष और दैविक उपचार पद्धतियों से जोड़कर एक समग्र चिकित्सा दृष्टिकोण विकसित किया, जिसने आधुनिक डॉक्टरों को भी प्रभावित किया.

कृष्ण कुमार ने अंधानुकरण से अधिक वैज्ञानिक प्रमाणीकरण पर जोर दिया. उनके प्रयासों से 1977 में डब्ल्यूएचओ और आईसीएमआर ने आयुर्वेद उपचार (विशेषकर रूमेटॉइड आर्थराइटिस) पर पहला क्लीनिकल ट्रायल शुरू किया. यही नहीं, अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने भी 2004–06 में उनकी अगुवाई में प्रोजेक्ट को फंड किया, जो India के लिए ऐतिहासिक क्षण था. उनका मानना था कि आयुर्वेद का वैश्वीकरण तभी सार्थक है जब उसमें परंपरा की आत्मा अक्षुण्ण रहे.

उन्होंने पर्यटन उद्योग के व्यावसायिक दबावों से परे रहकर प्रिवेंटिव मेडिसिन और हेल्थ टूरिज्म को बढ़ावा दिया. देश-विदेश में यात्राएं कर उन्होंने योग और ध्यान के सहारे आयुर्वेद को एक वैश्विक पहचान दिलाई.

कृष्ण कुमार केवल चिकित्सा तक सीमित नहीं रहे. उन्होंने क्षेत्रोपासना ट्रस्ट और भारतमुनि फाउंडेशन जैसे संगठनों के माध्यम से भारतीय संस्कृति और मूल्यों के पुनर्जागरण में योगदान दिया. उनके ट्रस्ट और विद्यालयों में आज भी विद्यार्थी परंपरागत भारतीय विज्ञानों की शिक्षा लेते हैं.

आयुर्वेद के वैश्विक प्रचार-प्रसार और शिक्षा सुधार में योगदान के लिए उन्हें 2009 में पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया. हालांकि, वे हमेशा कहते थे कि यह मेरा नहीं, आयुर्वेद का सम्मान है. स्वामी विवेकानंद के शब्दों को वे अक्सर उद्धृत करते थे कि हर नए विचार को पहले उपहास झेलना पड़ता है, फिर विरोध, और अंततः स्वीकृति.

पीएसके

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