हिंदू कैलेंडर के अनुसार साल के बारह महीने होते हैं और इन बारह महीनों में एक महीना है सावन का.
यह हिंदुओं के लिए श्रद्धा और भगवान शिव की भक्ति का महीना है, तो कुछ लोगों के लिए बेबसी, रोज़ी-रोटी की चिंता और पहचान पर उठते सवाल का महीना भी.
ख़ासकर देश के उत्तरी राज्यों में कांवड़ यात्रा एक बार फिर शुरू हो चुकी है और इसी के साथ शुरू हो चुका है पहचान और नाम का विवाद भी.
इस साल उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ रूट पर मौजूद सभी ढाबा, होटल और दुकान का मालिकाना हक़ रखने वालों को क्यूआर कोड स्टीकर और खाद्य सुरक्षा विभाग का लाइसेंस लगाने के निर्देश दिए हैं.
इन दोनों ही दस्तावेज़ों पर ढाबा मालिक का नाम, पता, कॉन्टैक्ट नंबर जैसी जानकारियां साफ़ तौर पर लिखी गई हैं.
नतीजा ये है कि जिन ढाबों का मालिकाना हक़ पूरी तरह या आंशिक रूप से किसी मुसलमान के पास है, उनमें से कई पर इस समय ताले लटक रहे हैं.
मुज़फ़्फरनगर से गुज़रने वाली दिल्ली-देहरादून हाइवे, हरिद्वार से गंगाजल लाने वाले कांवड़ियों के प्रमुख मार्गों में से एक है. इस हाइवे पर ऐसे कई ढाबे हैं जो बंद नज़र आते हैं.
मांसाहारी ढाबों को लेकर तो प्रशासन ने पहले ही निर्देश दे दिए थे कि इन्हें कांवड़ यात्रा के दौरान बंद करना होगा, लेकिन वैसे शाकाहारी भोजनालय या रेस्तरां जिनके मालिक मुसलमान हैं, वो भी बंद पड़े हैं.
मुजीब अहमद, इसी रूट पर प्रधान फूड कोर्ट नाम से एक शुद्ध शाकाहारी रेस्तरां चलाते हैं. उनका कहना है कि उन्होंने अपना ये फ़ूड कोर्ट अपनी मर्ज़ी से बंद किया है, ताकि कांवड़ यात्रा के दौरान किसी भी तरह की कोई दिक़्क़त न हो.
उनके फ़ूड कोर्ट के ठीक बगल में छोटी सी दुकान चलाने वाले मेनपाल बताते हैं कि रेस्तरां के मालिक मुजीब मुस्लिम हैं इसलिए उन्होंने अभी अपनी दुकान बंद कर दी है.
उनके मुताबिक़ कांवड़ यात्रा ख़त्म होने के बाद यानी तक़रीबन 24 जुलाई को मुजीब दोबारा अपना रेस्तरां खोलने के बारे में कह कर गए हैं.
साझेदारी वाले ढाबों पर भी असर
इस रूट पर कई ऐसे ढाबे भी हैं, जिनके मालिक हिंदू-मुसलमान दोनों हैं. यानी ये ढाबे पार्टनरशिप पर चलते हैं.
ऐसे ढाबा के मालिकों से बात करने पर पता चलता है कि साल के बाक़ी महीने इनका संचालन बिना किसी टकराव के शांतिपूर्ण तरीक़े से होता है, लेकिन कांवड़ यात्रा के इन पंद्रह-बीस दिनों में कई मुस्लिम साझेदारों को एहतियातन ढाबे से दूरी बनानी पड़ती है.
सोनू पाल, मोहम्मद युसूफ़ के साथ साझेदारी में पंजाबी ढाबा नाम का शुद्ध शाकाहारी भोजनालय चलाते हैं.
उनका कहना है कि कांवड़ यात्रा के दौरान हिंदुत्ववादी संगठन जैसे बजरंग दल के लोग ढाबे पर आकर तहक़ीक़ात करते हैं, ऐसे में कोई विवाद न हो इसलिए युसूफ़ और उनके जैसे दूसरे मुस्लिम ढाबा मालिक अपने ही ढाबे से कुछ दिनों की दूरी बना लेते हैं.
हालांकि इन हालात के बावजूद मुस्लिमों के कुछ ढाबे हैं, जो खुले हैं और उनके मालिकों का कहना है कि प्रशासन की तरफ़ से उन्हें पूरा सहयोग मिल रहा है.
जैसे राजस्थानी शुद्ध खालसा ढाबा चलाने वाले फ़ुरकान का कहना है कि पिछले साल की तुलना में हालात बेहतर हैं. उन्हें ढाबा चलाने में किसी तरह की कोई समस्या नहीं आ रही, बस कांवड़ियों को देखते हुए ज़्यादा सावधानी बरतनी पड़ती है.
वो कहते हैं, ''पहले, मैं दिन में आठ घंंटे ढाबे पर गुज़ारता था लेकिन कांवड़ के दौरान अठारह घंटे ढाबे पर ही रहना पड़ता है. इसका कारण ये है कि कोई आए और पूछताछ करे तो मैं वहीं मौजूद रहूं. मेरी अनुपस्थिति में किसी तरह का कोई विवाद न हो जाए. हमने अपनी तरफ़ से ऐसी चीज़ों की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है. प्याज़ का छोटा छिलका सड़क पर भी नज़र आ जाता है तो हमारे यहां सफ़ाई करने वाले उस पर मिट्टी डालने दौड़ते हैं.''
इस सवाल पर कि क्या कांवड़ यात्रा के दौरान ढाबे पर चहल-पहल बढ़ती है?
फुरकान कहते हैं कि कांवड़ के वक़्त धंधा थोड़ा मंदा पड़ जाता है क्योंकि कई कांवड़िए नाम देखकर ढाबे पर नहीं रुकते.
नेपाली ढाबा नाम से शाकाहारी भोजनालय चलाने वाले इंतख़ाब आलम के भी कुछ ऐसे ही अनुभव हैं.
ढाबा मालिकों की एक बड़ी चिंता ये भी है कि कहीं धर्म के आधार पर कोई बेवजह विवाद न खड़ा कर दे.
ऐसे में कुछ लोग अपने यहां काम करने वाले मुस्लिम दिहाड़ी कर्मियों को कांवड़ यात्रा के दौरान छुट्टी पर भेज देते हैं.
देव रमन बीते 27 सालों से मां लक्ष्मी नाम का ढाबा चलाते हैं.
वो कहते हैं, ''हमारे यहां दो मुस्लिम कर्मचारी हैं, एक का नाम आरिफ़ है और दूसरे को अभी नया ही रखा था. तो कांवड़ के वक़्त हम उन्हें ख़र्चा पानी देकर छुट्टी दे देते हैं. हम नहीं चाहते कि उन्हें किसी तरह की कोई समस्या हो और न हम पर ही कोई सवाल उठाए.''
देव रमन का कहना है कि वो हिंदू-मुस्लिम की बुनियाद पर किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं करना चाहते लेकिन कांवड़ के वक़्त ऐसे एहतियातन कदम उठाने पड़ते हैं.
कुछ ढाबा मालिकों ने हमें बताया कि कई बार तो मुस्लिम कर्मचारी खुद ही कांवड़ के दौरान काम छोड़कर चले जाते हैं.
ढाबा मालिक सोनू पाल ने बीबीसी को बताया, हमारे यहां 12 कर्मचारी हैं, जिनमें चार मुस्लिम और बाक़ी हिंदू हैं. हिंदू कर्मचारी कांवड़ यात्रा पर निकल गए हैं, वहीं मुस्लिम कर्मचारियों ने काम पर आना बंद कर दिया है. हम उन्हें पंद्रह हज़ार के क़रीब तनख़्वाह देते थे लेकिन अभी वो क्या कर रहे हैं, कैसे गुज़र बसर कर रहे हैं, मुझे नहीं पता.''
कई मुसलमानों को काम छोड़ना पड़ता हैलेकिन उन मुस्लिम कर्मचारियों का क्या, जिन्हें इन दिनों मजबूरन घर बैठना पड़ता है, वो भी बग़ैर किसी आर्थिक मदद या वैकल्पिक रोज़गार के?
तौहीद दिल्ली-देहरादून हाइवे पर मौजूद एक ढाबे पर काम करते थे. कांवड़ से कुछ दिन पहले उनके मालिक ने उन्हें काम पर आने से मना कर दिया.
हम उनसे बात करने उनके गांव पहुंचे.
वह बताते हैं कि बीते चार साल से कांवड़ यात्रा के दौरान उन्हें घर पर बिना किसी रोज़गार के बैठना पड़ता है.
तौहीद के मुताबिक़, ''कांवड़ यात्रा के दौरान होटलों से मुस्लिम कर्मचारियों को एक तरह से हटा दिया जाता है, ताकि कोई भी इसे मुद्दा न बनाए.''
दस लोगों के परिवार में तौहीद कमाने वाले अकेले हैं.
वह कहते हैं, "घर पर बैठे रहने से हर महीने करीब 10 से 12 हज़ार रुपए का नुकसान हो जाता है. ख़र्च चलाने के लिए दस हज़ार रुपए उधार लेने पड़े. अब जब दोबारा काम शुरू होगा, तो ये कर्ज़ चुकाएंगे."

इस बार अब तक मुज़फ्फरनगर में दो ऐसे मामले सामने आ चुके हैं जहां कांवड़ यात्रा के दौरान ढाबों पर हिंसा हुई. एक मामले में दाल में प्याज़ परोसे जाने का दावा करते हुए कांवड़ियों ने ढाबे में जमकर तोड़फोड़ की.
वहीं दूसरे मामले में एक ढाबा मालिक पर अपने मुस्लिम कर्मचारी की पहचान छिपाने का आरोप लगाते हुए हिंदुत्ववादी संगठन के लोगों ने मारपीट की.
मुज़फ़्फ़रनगर के बझेड़ी गांव के रहने वाले तज्जमुल एक ढाबे पर काम करते थे.
उनका दावा है कि कांवड़ यात्रा के कुछ महीने पहले ही उनके हिंदू मालिक ने उनका नाम गोपाल रख दिया था और इस वजह से उन्हें मारा पीटा गया.
इस मामले में आरोप है कि उनके साथ मारपीट करने वालों ने कपड़े उतरवाकर भी जांच की.
तज्जमुल बताते हैं, ''उन्होंने पहले मालिक के साथ मारपीट की, फिर मेरे साथ. मुझे अलग से कमरे में ले जाकर मेरी पैंट उतरवाई गई, मुझसे पूछा गया कि मैं हिंदू हूं या मुस्लिम.''
जिस ढाबे पर ये घटना घटी, उसके मालिक से हमने बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने इस मामले में बात करने से इनकार कर दिया.
तज्जमुल का कहना है कि वो दोबारा कभी किसी ढाबे पर काम नहीं करेंगे.
सामाजिक तानेबाने पर कितना असरउधर प्रशासन का कहना है कि यात्रा के दौरान सामाजिक सौहार्द बना रहे और ऐसी घटनाएं न हों इसके लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं.
मुज़फ़्फ़रनगर के सिटी एसपी सत्यनारायण ने बीबीसी से कहा, ''सामाजिक तानेबाने को बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि समाज के हर वर्ग से बातचीत की जाए. कांवड़ के मद्देनज़र जितनी कांवड़ कमिटी होती है, उनसे लगातार वार्ता होती है, मीटिंग होती है. उसके अतिरिक्त जो प्रशासन की गाइडलाइन होती है, उसे लेकर भी जागरूकता फैलाई जाती है.''
लेकिन इसके बावजूद ढाबा मालिकों और यहां काम करने वाले मुस्लिम कर्मचारियों में डर और दबाव का माहौल साफ़ नज़र आता है.
जैसे ढाबा मालिक देव रमन कहते हैं, ''डर है क्योंकि कांवड़ यात्रा के दौरान कई उपद्रवी भी आ जाते हैं. उनके पास पैसे न हों, मत दें, बिल में कम करा लें लेकिन हिंसा से हमें डर लगता है.''
शिक्षाविद अपूर्वानंद और कुछ एक्टिविस्ट्स ने इन हालात के मद्देनज़र सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाख़िल की है. याचिका के मुताबिक़ QR कोड और लाइसेंस संबंधी उत्तर प्रदेश सरकार के निर्देश मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार का एक ज़रिया बनते जा रहे हैं और इससे समाज में गहरा वैमनस्य पैदा हो रहा है.

बीते साल भी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड प्रशासन का एक फ़ैसला काफ़ी चर्चा और विवादों में रहा.
इस फ़ैसले के तहत कांवड़ रूट पर मौजूद ढाबों, होटलों और दुकानों का मालिकाना हक़ रखने वालों को अपना नाम सार्वजनिक करना अनिवार्य था.
पर बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले पर ये कहते हुए अंतरिम रोक लगा दी कि ढाबा या होटल मालिकों को अपनी पहचान ज़ाहिर करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता.
पर एक बार फिर पहचान और रोज़गार के सवाल को लेकर वही बहस, वही चिंताएं दोहराई जा रही हैं.
ऐसे में नज़र अब इस बात पर है कि अदालत में सरकार इस बार क्या दलीलें पेश करती है और आख़िर में कोर्ट का फ़ैसला क्या होगा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
- उत्तर प्रदेश: कांवड़ यात्रा पर कविता को लेकर शिक्षक पर एफ़आईआर, पूरा मामला जानिए
- कांवड़ यात्रा क्या है, क्या है इसका महत्व?
- हरिद्वार में कांवड़ रूट पर मस्जिद और मज़ार ढकी गईं और अब हटे पर्दे, पढ़िए पूरा मामला क्या है
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